मौत किसकी
रात के सन्नाटे को भेदती
एक दर्दनाक चीख,
उसी के साथ
बीच सड़क पर गिर पड़ी
एक मानवाकृति
लहराकर होकर लहुलुहान।
वो आकृति
जो न थी किसी व्यक्ति विशेष की
न थी किसी गुण्डे मवाली की,
लग रहा था
ढ़ाँचा एक इंसान का।
तभी निकल कर उसमें से एक साया
मेरे सामने हो गया खड़ा,
बाँधकर हिम्मत मैंने पूछा-
कौन है यह?
कैसे मर गया?
इसे किसने मारा?
वह साया अट्टाहास करके हँसा,
हँसी थी बड़ी डरावनी,
बहुत ही खोखली....
बोला-
किस-किस की लाश बतायें इसको?
किस-किस की बात बतायें तुमको?
यह मौत है एक आम आदमी की,
यह मौत है किसी नवेली दुल्हन की,
यह लाश है किसी बेरोजगार की,
लाश किसी भूखे...गरीब की,
किसी के अरमान इसमें मृत हैं,
किसी के ख्वाब इसमें दफन हैं,
मारा है इसे
किसी नेता ने झूठे वादों से,
मारा है इसको दहेज ने,
किसी को नौकरी ने,
तो किसी को भूख ने।
अरे मानव! तुम....
तुम किस-किस को
मरने से बचाओगे?
हर रूप में तुम्हीं तो कातिल हो,
कभी झूठे वादे,
कभी लालच,
कभी भूख बनकर आते हो,
हर एक मौत को
व्यक्ति विशेष से जोड़ते हो।
मरते इंसान को देखते हो पर...
साथ में मरती इंसानियत
नहीं देखते हो।
आज मौत तुम्हारे लिए
एक मजाक है,
इसमें नहीं कोई
तुम्हारा अपना है।
इस मृत आकृति में
अपनी आत्मा को देखो,
हर मरते हुए में
अपनी मानवता को मरते देखो,
मरते मानव के साथ
मरती मानवता को रोको,
तब तुम समझ सकोगे
कि....
कौन मरा?
कैसे मरा?
और....और
इसे किसने मारा?
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45- कलम की यात्रा
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47- कहाँ आ गए हैं
48- किससे कहें...
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50- तुम्हारा अहसास
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