डर आतंक का


आतंक के उत्पात से,
हिंसा की हिंसात्मक राहों से
थक-हार कर निकला,
शांति की खोज में,
प्रेम, अहिंसा की चाह में।
भटकता रहा दरबदर,
पर ये न आये नजर,
सोचा....कहीं इनको
कत्ल न कर दिया गया हो?
पर मन...ये व्याकुल मन
न माना ये अखण्ड सत्य।
जो स्वयं सत्य है
वही असत्य है।
थक-हार कर
एक निर्जन कोने में बैठ कर
मन को टटोला,
तो....किसी सूने कोने में
प्रेम, अहिंसा, शांति को पाया।
गाँधी के तीन बंदरों की तरह
एक साथ थे,
घायल पड़े थे,
कराह रहे थे।
किसी तरह
मेरे आने का सबब पूछा।
मैंने उन्हें
अपना मन्तव्य बताया,
हर तरह से,
हर तरफ से
मची हिंसा को
शांत करने के लिए
साथ चलने को कहा,
पर....
भय से पीले पड़े
चेहरों के पीछे की करुणा ने
सब कह दिया,
लगा....
कातर दृष्टि से कह रहे हों जैसे
‘‘हे मानव!
मुझे अकेला छोड़ दो
मरने को,
नहीं हमारी चाह अब किसी को,
अब दुनिया
हिंसा आतंक की है,
हमें अब फिर से जिन्दा न करो,
क्योंकि
तुम हमें बचाकर न रख पाओगे
और हम फिर
किसी हिंसा, आतंक के द्वारा
कत्ल कर दिये जायेंगे,
मार डाले जायेंगे।

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