खामोशी
एक निस्तब्धता
हम दोनों के बीच
सदियों से छाई है।
हम दोनों साथ चलते रहे
जाने कब से मगर
इस मौन को न तोड़ सके।
वह बात
जो मैं सुनना चाहता था
तुम्हारी आवाज़ में,
उसे नज़रों की भाषा में
पढ़ सके।
हमारी बात दिल की
दिल में ही रह गई,
एक खामोश मौन की
गहराइयों में बह गई।
तुम्हारे लबों पर,
तुम्हारे विचारों की लय पर
पहरा लगा था समाज का,
परदा पड़ा था
शर्म और लाज़ का,
पर मैं...मैं क्यों मौन रहा?
क्यों खामोशी का दामन थामे
यूँ चलता रहा?
हवा के हर झोंके ने,
बादलों की हर अँगड़ाई ने
छूकर पास से,
सिरहन मचाकर तन में
मौन को तोड़ना चाहा,
पर....
सफर यूँ ही खामोश कटता रहा।
आज फिर तुम्हारी नज़रों ने
संग ले इस सुहाने मौसम का
कुछ पूछना चाहा,
खामोश दर्प को तोड़ना चाहा।
नज़रों ने
नज़रों की निस्तब्धता को तोड़ा,
हम फिर भी
वैसे ही खामोश रहे,
नज़रों के सहारे ही
कुछ कहते रहे।
और चल पड़े अगले पल
वैसे ही खामोश, मौन,
निस्तब्धता लिए।
न पता कब तक
यूँ अनवरत,
शायद जनम-जनम तक,
इस जनम से उस जनम तक।
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07 - श्मशान
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09 - नारी के विविध रूप
10 - मानव
11 - याद तुम्हारी
12 - मानवता की आस में
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36 - अंधानुकरण
37 - अन्तर
38 - वृद्धावस्था
39- जीवन-चक्र
40- आज का युवा
41-करो निश्चय
42- ज़िन्दगी के लिए
43- घर
44- अनुभूति
45- कलम की यात्रा
46- सुखों का अहसास
47- कहाँ आ गए हैं
48- किससे कहें...
49- आने वाले कल के लिए
50- तुम्हारा अहसास
51- दिल के करीब
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