ग़मों का साया


तेज रफ्तार ज़िन्दगी से हैरान परेशान,
हर मुश्किल से जूझता,
इस ज़िन्दगी को कोसता,
निकल पड़ता था
वीरान राहों पर,
जहाँ कोई और न होता था,
सिवाय मेरे और मेरी परेशानियों के।
लगता था समाज का
सबसे दुःखी व्यक्ति मैं ही हूँ।
अगले ही पल
मानव मन की छिपी
शैतानी भावना,
कलुषित इरादों को लेकर,
ढूँड़ने लगता औरों के ग़म,
बजाय मिटाने के अपना ग़म।
देखकर औरों को परेशान,
प्रसन्न हो उठता,
बहुत हैं हमसे भी दुःखी
सोच कर संतोष मिलता।
चलते-चलते एक दिन सहसा
करुण क्रंदन
कानों में पड़ा,
उस वीराने में
सिवाय झोपड़ी के कुछ न दिखा।
जिसमें भूख से तड़पते बच्चे
खा रहे थे धोखा।
जिसे सामने बैठी माँ
खाली बरतनों में पका रही थी।
जला कर चूल्हा अपनी देह का
आँसुओं के घूँट पिला रही थी।
कुछ न कर पाने,
कह पाने से बेबस,
चल पड़ा फिर अपनी डगर,
देखकर वह मर्मस्पर्शी मंजर।
मन सोच रहा था
उस माँ के बारे में,
उन बच्चों के बारे में,
जो हैं देश के कर्णधार,
जिन्दा रखे हैं अपने आपको
खाकर धोखा,
पीकर आँसुओं की धार।
आज मन पहली बार
किसी के दुःख से परेशान था,
अपने दुःखों का कतई भान न था।
दुःख किसी भ्रष्टाचार का नहीं,
किसी कातिल का नहीं,
दुःख था हमारे नौनिहालों का,
उस जगत जननी माँ का
जो जला-जलाकर अपने अरमान,
जिन्दा रखे थी फिर भी
देश का अरमान।

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