यही नियति है?


देखकर आज की भयावह स्थिति
घबरा जाते हैं हम,
दोषपूर्ण व्यवस्था, कलुषित चेहरों से
थर्रा जाते हैं हम।
नित्यप्रति का एक नियम सा
बन गया है,
सुबह का उगता सूरज देखा है
पर होगी नसीब में
रात की चाँदनी कि नहीं
यही डर बना रहता है।
थककर बैठ कहीं छाँव में पेड़ की
हम सोचते रहते हैं
आज की दुर्दशा को,
कोसते रहते हैं
हम चार यार
किसी चाय के ढाबे के किनारे,
किसी पान की दुकान पर
होकर खड़े
आज की व्यवस्था को।
कभी राशन पानी को रोते हैं
कभी मुँह फाड़ती मँहगाई को कोसते हैं
हर एक चेहरे के पीछे
भ्रष्टाचारी दिखता है,
हर हाथ खून से रंगे लगते हैं।
ऐसा न होता तो अच्छा था,
वो हो जाता तो अच्छा होता
इसी में लगे रहते हैं।
पर...
क्या मात्र जबान-दराजी
इस दुर्व्यवस्था को सुधारेगी?
क्या हमारी आलस्य नीति ही
हमें सुधारेगी?
एक व्यक्ति नहीं, एक संस्था नहीं,
पूरा ढाँचा ही विकृत है,
इसी विकृतता में हर स्थिति कलंकित है।
क्यों हम तटस्थता की नीति अपनाये
आलोचना करते रहते हैं?
जबकि हम भी इसी ढाँचे का अंग हैं
इसी समाज का प्रत्यंग हैं
फिर क्यों हम इस दुर्दशा को
चाय के घूँट के सहारे पीना चाहते हैं?
क्यों बिना अलख जगाये
छाँव में जीना चाहते हैं?
इसी स्वार्थपरकता ने हमें
कठपुतली बनाया है,
पग-पग पर मनमाफिक नचाया है।
होकर अंग-प्रत्यंग इसी समाज का
कोसते रहते हैं
इसी समाज को शाम ढले तक
और फिर.....आने पर रात्रि
घुस जाते हैं लिहाफ में,
अगले दिन के इंतजार में,
क्योंकि हमें मिल जाता है
एक मसला रोने को,
व्यवस्था को कोसने को।
फिर शुरू होगा...अगले दिन
वहीं चाय की चुस्की के साथ
व्यवस्था को कोसना,
पान की पीक के साथ
घड़ियाली आँसू गटकना,
क्योंकि
अब हमारी यही नियति बन चुकी है,
पड़े-पड़े बस सोते रहना,
मूक दर्शक बन कर व्यवस्था को कोसते रहना।

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