मानव-विकास

हम सब,
यानि कि मानव,
आज का मानव,
जो कभी ऐसा न था।
वह रूप और आज के मानव में
जमीन आसमान का अंतर था।
हम मानव ने लगातार
परिस्थितियों से जूझकर
समस्याओं और जरूरतों से लड़कर
अपने आपको
आज की दशा में खड़े पाया।
कदम दर कदम,
लगातार
अतीत के अनुभवों का ले सहारा,
अपने को सुधारा,
अपने रूप को सँवारा।
हम मानव जो कभी झूलते थे
पेड़ों की शाख से,
कभी रहते थे
कंदराओं, गुफाओं में।
न ज्ञान था हमें
पहनने का, ओढ़ने का,
न था सलीका
अपना जीवन गुजारने का।
नित नई जरूरतों के लिए
नित नई खोज
और....
हर खोज ने हमें
उन्नति की राह दिखाई।
अग्रसर किया उस पथ पर
जो निश्चय ही उज्ज्वल पथ था।
ज्यों-ज्यों मानव का ज्ञान बढ़ता गया,
बढ़ती गईं मन में छुपी,
दिल में बसी भावनायें,
मिलने-मिलाने की आत्मीयतायें।
पशु रूप में विचरता मानव
समाज को बनाने लगा,
हर बिखरे अंग को सँवारने लगा,
और हर कदम हम मानव का
बनाता रहा
पशु रूप मानव से आज का मानव,
आदि-मानव से आधुनिक मानव।
इसके बाद भी
क्या सार्थक परिणाम निकला
उन खोजों, उन उपायों का?
आधुनिक मानव ने
अपनी जरूरतों को आगे बढ़ाया,
हर कदम पर
भौतिकता को गले लगाया।
कभी उसकी खोज में
आग, वस्त्र, घर आदि थे,
लेकिन वे अब
रुपया, हथियार, गोला-बारूद हो गये।
जो भावनायें पैदा हुई थी दिलों में
वे बारूद के धमाकों में दब गईं।
आधुनिक मानव की आत्मीयतायें
कहीं मृत हो गईं।
अब मानव अपन रूप को
और निखार चुका था,
आदि मानव से बना आधुनिक मानव
पर अब...
भौतिक यंत्र मानव बन रहा था।
दिल में छिपी भावनायें भी
मानव रूप के साथ बदल रहीं थीं,
हिंसा, द्वेष, लालच, वासना
आँखों में झलक रहीं थी।
लहू की नदी और
नफरत की आँधी में
भावनायें बह गईं थीं,
नजरें अब हर समय
किसी की अस्मत लूट रहीं थीं।
आह! क्या रूप बदल रहा है लगातार
यह मानव।
नई खोजों में किस कदर खुद को
मिटा रहा है यह मानव।
क्या इसी रूप के लिए
आदि-मानव ने अपना विकास किया?
मिटाने को भावनायें
और रिश्ते को
समाज रूपी अंग को गढ़ा था।
क्या सत्य है?
क्या सत्य यही है?
क्या आदि-मानव से आज के मानव का
विकास यही है?

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