किससे कहें....

रात के सन्नाटे में कभी-कभी
सुनाई पड़ती है
कानों में कुछ टूटने की आवाज़,
होता है कुछ दरकने का एहसास,
कहीं बहुत ही पास,
बिल्कुल अपने ही आसपास।
लगता है यूँ कि
कहीं कुछ बिखर रहा है,
बिखरना, दरकना,
एक-एक टुकड़े का गिरना
सीने में दर्द को और उभारता है
और तब
बड़ी ही खामोशी से
पता लगता है,
अपने दिल का दरकना,
किसी न किसी रूप में
किरिच बन-बन कर बिखरना।
हर एक किरिच,
हर एक टुकडा
कहीं जाकर गहरे तक
बनाता है घाव
और.....
रिस-रिस कर खून-ऐ-जिगर
आंखों के सहारे
आंसू बन कर बहता है।
पर.....
हर दर्द को,
हर ज़ख्म को,
अपने लहू को,
बहते आंसुओं को
हर बार, बार-बार
ख़ुद अपने में समेत लेते हैं।
किस-किस को अपने दर्द का
साझीदार बनायें,
किसे अपने टूटे दिल का हाल सुनाएँ,
हर दिल ही
किसी न किसी ग़म का मारा है,
सभी को किसी न किसी दर्द ने
आ घेरा है
और फ़िर....
सबसे बड़ी मजबूरी यह है हमारी,
गैरों को सुना नहीं सकते
अपने दिल का हाल
और ग़म हमारे तो
अपनों के ही दिए हैं।

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