पड़े थे खंडहर में
पत्थर की मानिंद,
उठाकर हमने सजाया है।
हाथ छलनी किए अपने मगर
देवता उनको बनाया है।
पत्थर के ये तराशे बुत,
हमही को आँखें दिखाने लगे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हैं?
बदन पर लिपटी है कालिख,
सफेदी तो बस दिखावा है।
भूखे को रोटी,
हर हाथ को काम,
इनका ये प्रिय नारा है।
भरने को पेट अपना
ये मुंह से निवाले छिना रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हैं?
सियासत का बाज़ार रहे गर्म,
कोशिश में लगे रहते हैं।
राम-रहीम के नाम पर
उजाड़े हैं जो,
उन घरों को गिनते रहते हैं।
नौनिहालों की लाशों पर
गुजर कर,
ये अपनी कुर्सी बचा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हैं?
संग्रह की समस्त कवितायेँ
01 - मेरा भारत महान
02 - रहस्य जीवन का
03 - भूख
04 - इच्छाएँ
05 - बचपन की बेबसी
06 - सत्यता
07 - श्मशान
08 - कुदरत की रचना
09 - नारी के विविध रूप
10 - मानव
11 - याद तुम्हारी
12 - मानवता की आस में
13 - ऐ दिल कहीं और चलें
14 - अकाट्य सत्य
15 - कोई अपना न निकला
16 - उस प्यारे से बचपन में
17 - मेरा अस्तित्व
18 - मजबूरी
19 - डर आतंक का
20 - मौत किसकी
21 - जीवन सफर
22 - नारी
23 - सुनसान शहर की चीख
24 - एक ज़िन्दगी यह भी
25 - पिसता बचपन
26 - ग़मों का साया
27 - खामोशी
28 - तुम महसूस तो करो
29 - अपने भीतर से
30 - फूलों सा जीवन
31 - सत्य में असत्य
32 - स्वार्थमय सोच
33 - पत्र
34 - मानव-विकास
35 - यही नियति है?
36 - अंधानुकरण
37 - अन्तर
38 - वृद्धावस्था
39- जीवन-चक्र
40- आज का युवा
41-करो निश्चय
42- ज़िन्दगी के लिए
43- घर
44- अनुभूति
45- कलम की यात्रा
46- सुखों का अहसास
47- कहाँ आ गए हैं
48- किससे कहें...
49- आने वाले कल के लिए
50- तुम्हारा अहसास
51- दिल के करीब
कविता संग्रह