आने वाले कल के लिए

उत्सव मना लेने के बाद भी
परेशानी किंचित मात्र नहीं है
हमारे चेहरों पर।
हम गर्व कर रहे हैं
अपनी व्यवस्थाओं,
अपने आयोजनों की असफलताओं पर
क्योंकि हम भारतवासी हैं।
नव-शिशु के आगमन पर
हमें हर्ष तो होगा ही,
उमंगों, हंगामों, उत्सवों का
आयोजन तो होगा ही
क्योंकि एक शिशु तो अधिकारी है इसका।
जो नवोन्मेषी है शिशु
अभी इस संसार में
उसके आगमन पर दुःख कैसा,
उसके पदार्पण पर रोना कैसा।
रोना तो होगा हमें
हमारी अपनी व्यवस्थाओं का,
दुःख तो होगा हमें
अपने कारनामों का,
एक पुत्र की चाह में
आज भी
अपनी अजन्मी बिटिया को मिटा देना,
आधुनिकतावादी होने का दंभ करके भी
पुत्र-पुत्र की लालसा संजोये रखना,
यह किसी भी शिशु का अधिकार नहीं है।
यह हमारी उत्कंठा की परिणति है,
जो कुत्सित मनोदशा के सहारे
रचाती है ऐसे कुकृत्यों को।
हमें खुशी के साथ-साथ
इसके साए में चल रहे
वीभत्स सत्य को भी देखना होगा,
उसकी विभीषिका को रोकना होगा।
आने वाला शिशु
हमारी आकाँक्षाओं,
हमारी कल्पनाओं,
हमारे सपनों का संसार है।
सोचना हमें यह है कि
हम इन्हें दे क्या रहे हैं?
जहरीले धुंए से भरी हवा,
रसायनों से भरा पीने का पानी
और भूख,
प्राकृतिक नजारों में सूखा और बाढ़?
जन्मी है आज जो पीढ़ी
वो एक पल के लिए नहीं है,
मात्र आज के लिए नहीं है,
इसी के कन्धों पर टिका है
हमारा भविष्य,
इसी की आंखों में सज रहे हैं
हमारे स्वप्न।
तो फ़िर हम खामोश क्यों हैं?
क्यों थोड़े सुस्त,
कुछ लाचार हैं?
इनका कल उज्ज्वल करने के लिए
हमें आज तो संवारना होगा।
बनने से पहले ही
न मिट जाए
खुशियों का महल,
यह भी सोचना होगा।
सब कुछ जान कर भी
अब हम अनजान क्यों हैं?
बाहरसे खुश,
अन्दर से परेशान से क्यों हैं?
क्या इसलिए कि हम भारतवासी हैं?

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