अन्तर

कई वर्षों, कई दशकों, शताब्दियों और
कई युगों तक,
अनन्त-अनन्त योनियों में
भटकता, विचरता
अब जाकर मानव रूप को प्राप्त किया।
इस नश्वर संसार में
सर्वोत्कृष्ट जीव का स्वरूप
इस आत्मा ने धारण किया।
उन विभिन्न योनियों में विचरते हुए,
अपनी आत्मा को कभी पशु, कभी पक्षी,
कभी कीट पतंगा बनते देखा,
कभी दो पल की जिन्दगी तो
अगले पल मौत को देखा।
मानव रूप को देखा,
मन में सहेजा,
तब शायद किसी पशुरूप आत्मा में
सोचा होगा,
मानव रूप में
अपनी आत्मा का अवतरण,
छोड़कर ये पाशविक आवरण।
करके पशुरूप में भी कोई सत्कर्म,
फल रूप में किसी जन्म में प्राप्त कर गया
मानव मन को,
इस मानव तन को।
व्यवस्था और रीति-रिवाजों के ढाँचे में ढलता,
समस्याओं की चक्की में पिसता,
भावनाओं के सागर में हिचकोले खाता।
किसी मानव का
मानव रूप में भी पाशविक आचरण,
किसी का मानवता छोड़,
हैवानियत का वरण।
अपने लिए अपनों को मिटाने की चाल,
और भी न जाने क्या-क्या कमाल,
हर कदम पर नये बवाल।
दिन और रात को
एक कर देने का प्रयास,
दौड़ते वक्त को
मुट्ठी में कैद करने का
असफल प्रयास।
कभी सोचता हूँ देख कर
खून के प्यासे दो इंसानों को,
सर्वोत्कृष्ट जीव से परिवर्तित होते हैवानों को।
फिर देखता हूँ,
अपने में ही खोये
पशुरूप में विचरते जीवों को,
तब लगता है कि
कितना निरर्थक है ये जीवन
जो कटा जा रहा है महज
जोभ, मोह, काम और अर्थ में,
मिटा जा रहा है यह तन,
यह मन भी अकारण,
बिना किसी सत्कर्म।
क्या फायदा फिर तेरे मानव तन का,
जो मिटा रहा है खुद
अपना वजूद,
अपना समूल।
एहसास होता है तब
दूर गगन में उड़ते पंक्षियों को देख
कि शायद..... यही जीवन अच्छा है,
स्वच्छन्दता का वातावरण है,
न गम का नामोनिशान है,
न स्वार्थपरकता का एहसास है।
शायद यही....
सर्वोत्कृष्ट जीव के और
निकृष्ट जीव के
जीने का आधार,
जीवन का प्रकार।
जीवन का आधार,
जीने का प्रकार।

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