स्वार्थमय सोच


दूर कहीं से आती एक चीख ने
दिल दहला दिया,
घबरा कर हमने
अपने को समेट कर
घोंसले रूपी घर में छिपाया,
उस चीख में छिपे भय को
अपने आसपास पाया।
कहीं वह भय, कहीं यह चीख
हमारी शांति को न छीन ले?
कहीं उस चीख में छिपी
करुणा, वेदना
हमसे कुछ माँगने न लगे?
इसी डर से, इसी भय से हम
छिपे रहते हैं।
बगल के कमरे में सोती
युवा पुत्री को देखते हैं,
डरते हैं कि कहीं उस चीख में
छिपे न हों काले हाथ, जो
प्रविष्ट होकर हमारे घर में
लूट कर अस्मत गिरा दें नजर में?
कभी माँ से लिपट कर सोते
मासूम बेटे को देखते हैं,
कभी कमरे की खिड़कियों का
ठीक से लगा होना देखते हैं।
उस समय हमारे सामने होता है
हमारा परिवार, हमारा घरबार।
वही छोटी सी दुनिया होती है
हमारा वतन, हमारा चमन।
कितने निर्मोही, स्वार्थी, अंधे होकर
बना लेते हैं
एक भरोसे का अदृश्य घेरा,
आपस में सिमट कर सभी
हो जाते हैं एकाकार,
करके घुप्प अंधकार,
दुबक जाते हैं अपने आप में।
उस चीख का कारण भी नहीं खोजते
कभी यह भी न सोचते कि
क्यों उत्पन्न हुई वह चीख?
क्यों उपजा वह शोर,
खामोशी को चीर?
कहीं वह चीख भूख से दम तोड़ते
किसी बालक की तो नहीं?
किसी घर के कोने में जल रही
किसी नारी की तो नहीं?
कहीं उस चीख में
किसी बुढ़ापे का सहारा
तो नहीं छिना?
उस चीख ने किसी का
सुहाग तो नहीं उजाड़ा?
हो सकता है कि वह शोर
किसी नारी की इज्जत मिटने का हो,
मदद को, हमें,
चीख कर पुकारा हो?
पर नहीं...
हम स्वार्थपरक सोच लिए,
उन्नत विचारों और
उच्च मानसिकता का ढोंग लिए
अनसुना कर देते हैं
उस आवाज को
और समा जाते हैं,
अपने संसार में,
अपने छोटे से
स्वार्थमय संसार में।

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