जीवन-चक्र


धरातल पर आकर खड़ी हो गईं फिर
उड़ती आकांक्षाएँ लोगों की,
दरक गये सपने
जो सजे थे लोगों के,
बिखर गईं कड़ियाँ
जो बुनी थी लोगों की।
हर सांस को अगली सांस का पता नहीं,
इस पल में क्या गुजर जाये पता नहीं,
बस....समय की गति से न पिछड़ने के लिए,
आज की भागदौड़ में साथ चलने के लिए,
लगे हैं....किसी मशीन की तरह।
उगते सूरज की मानिन्द उठ कर,
सारे दिन का सफर
खत्म होता है जो
रात की काली चादर तले।
इसी को अपने दर्द की इंतिहा जाना,
इसके बाद किसी सीमा को न पहचाना,
भागदौड़ का दर्द,
पिछड़ने का भय,
कुछ पाने की लालसा,
कुछ खोने का ग़म,
समझा गया, माना गया इसी को
सबसे बड़ा ग़म,
आने वाले पल को कठिन हरदम।
क्या जिन्दगी की कठिनता इसी को समझा जाये?
दर्दो-ग़म को इससे कम न आँका जाये?
नहीं और....कभी नहीं।
बढ़ाकर दो कदम औरों की राह पर
लोगों के दर्द को जाना जाये।
क्या वो दर्द कम है उस बालक का
जो चिपका है अपनी
भूखी, सूखी, बेबस माँ के
भूखे, सूखे, बेबस आँचल तले।
मिटाने को आग पेट की
पी रहा है आँसू दूध के बदले।
नहीं पा सका सिवाय हौले से थपकी के
बेजान सी लोरी के साये में छिपी
माँ की सिसकी के।
नहीं मिल सका कुछ और उसे,
नहीं दे सकी वह लाचार माँ उसे
तब क्या यह दर्द माँ का
कमतर रहा किसी ग़म से?
दुःख वहाँ भी कम नहीं जहाँ
कोमल हाथों में है औजार की कठोरता,
भूख, गरीबी, लाचारी तले पिस रहा है
बचपन...लावण्य....।
दहेज की लालची निगाह में जलती कोई दुल्हन,
सिसकता रह जाता है जिसके पीछे
किसी बाबुल का आँगन,
सुनी पड़ी रह जाती है
किसी भाई की कलाई।
कुचल जाती है कहीं कोई नन्ही जान
इस जहाँ में जन्मने से पहले,
छिपा जाती है माँ अपने अंतर में
अपने हिस्से को खोने के दर्द की गहराई।
किसी को दर्दो-ग़म गरीबी-लाचारी का,
कहीं किसी को दुःख बेकारी का।
दर्द...दर्द...और दर्द,
शायद यही आज का तथ्य है,
इस जगत का कटु सत्य है।
संकीर्ण, संकुचित रूप में हमें दिखती है
अपने ही दुःखों की परछाईं
पर...यहाँ तो हर मन में,
हर दिल में बनी है
दुःखों, ग़मों की खाई।
जिसमें डूब रहा है,
तड़प सिसक रहा है
हर इंसान।
निकलने को बाहर इससे
हाथ-पैरों का अथक प्रयास,
लेकिन जन्म से मृत्युपर्यन्त
इसी दर्दो-ग़म की खाई में
सिसकता रहता है इंसान।

संग्रह की समस्त कवितायेँ

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